क्या फरक पड़ता है कि
फ़िर
लापता है तु,
तेरी
शख्सीयत तो मिल जाती है अकेले चाँद में आज
भी।
खामोश उम्मीदों में
रह
न
पाता युं,
तेरी गैरहाज़िरी कि गुफ़्त्गु पर मेरे
साथ थी।
क्या
फरक पड़ता है…
क्या
फरक पड़ता है कि
छू
लिया
किसी और को,
रंगीन
तो तुझसे
भी शाम कितनो कि आबाद थी।
दिन
में चाहे आज संग
कितने
हि
साथ हो,
बिस्तर
में कल रात फ़िर तेरी ही तो याद थी।
क्या
फरक पड़ता है…
क्या फरक पड़ता है कि
मुझे
हि
रोग समझ बैठा है,
जंग तो तेरी खुद के हि नासूरों के साथ थी।
इस
बहाने हि सही
तुझे
लड़ना तो पड़ेगा,
शायद यारी हो फिर कुछ जीत के ही बाद ही।
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